परिहार राजपूतों ने ७ वीं से ११ वीं शताब्दी के मध्य, उत्तर भारत के राजनीतिक परिदृश्य को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया। आइए, जानते है परिहार राजपूत का इतिहास, परिहार वंश का गोत्र, परिहार वंश की कुलदेवी, परिहार वंश के राजा और ऐसी ही कई रोचक बाते।
परिहार वंश का परिचय | परिहार राजपूत का परिचय | Parihar Rajput Parichay | Introduction of Parihar Rajput
परिहार वंश (Parihar Rajput dynasty), जिसे प्रतिहार वंश के नाम से भी जाना जाता है, भारत के प्राचीन राजपूत वंशों में से एक है। यह वंश ७ वीं से ११ वीं शताब्दी तक उत्तर भारत में शक्तिशाली रहा।
परिहार राजपूत वंश का उद्गम राजस्थान के मेड़ता शहर से माना जाता है। नागभट्ट प्रथम, जिन्हें “आदि-परिहार” भी कहा जाता है, इस वंश के प्रथम ज्ञात शासक थे। उन्होंने ७ वीं शताब्दी में गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य की स्थापना की।
नागभट्ट प्रथम के उत्तराधिकारी, भोज प्रथम, ने अपनी शक्ति को बढ़ाया और कन्नौज पर विजय प्राप्त की। कन्नौज उस समय उत्तर भारत का एक महत्वपूर्ण राजनीतिक केंद्र था।
परिहार वंश के सबसे प्रसिद्ध शासकों में से एक मिहिरभोज थे। उन्होंने ९ वीं शताब्दी में शासन किया और अपनी वीरता और रणनीतिक कौशल के लिए जाने जाते थे। उन्होंने कई युद्धों में जीत हासिल की और अपनी शक्ति को पूरे उत्तर भारत में फैलाया।
परिहार वंश के शासक कला और संस्कृति के संरक्षक भी थे। उन्होंने कई मंदिरों और स्मारकों का निर्माण किया, जिनमें से कुछ आज भी मौजूद हैं।
११ वीं शताब्दी में, परिहार वंश का पतन हो गया। गजनी के महमूद के आक्रमणों और अन्य राजपूत वंशों के उदय के कारण उनकी शक्ति कमजोर हो गई।
परिहार वंश ने भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने उत्तर भारत को कई शताब्दियों तक शासन किया और कला, संस्कृति और वास्तुकला में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
परिहार वंश की उत्पत्ति | परिहार राजपूत की उत्पत्ति | Parihar Vansh ki Utpatti | Patihar Rajput Utpatti
परिहार वंश की उत्पत्ति के बारे में कई मत हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यह वंश सूर्यवंशी क्षत्रिय हैं, जबकि अन्य का मानना है कि यह वंश चंद्रवंशी क्षत्रिय हैं।
एक लोकप्रिय मत के अनुसार, परिहार वंश की उत्पत्ति राजस्थान के मेड़ता शहर से हुई। मेड़ता के राजा नागभट्ट प्रथम को इस वंश का संस्थापक माना जाता है।
एक अन्य मत के अनुसार, परिहार वंश की उत्पत्ति गुजरात के मंडोर शहर से हुई। मंडोर के राजा भोज प्रथम को इस वंश का संस्थापक माना जाता है।
परिहार वंश के नाम को लेकर भी कई मत हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि “परिहार” शब्द “प्रतिहार” का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है “द्वारपाल”।
कुछ लोक कथाओं के अनुसार, परिहार वंश भगवान श्री राम के अनुज श्री लक्ष्मण जी के वंशज माने जाते हैं। क्यों की श्री लक्ष्मण जी अपने बड़े भाई श्री राम जी के लिए द्वारपाल का काम किया था इसीलिए इस वंश को परिहार वंश के नाम से जाना जाने लगा|
एक अन्य मत के अनुसार, “परिहार” शब्द संस्कृत शब्द “परिहृत्” से लिया गया है, जिसका अर्थ है “रक्षक”।
परिहार वंश के शासकों ने अपनी वीरता, रणनीतिक कौशल और कला-संस्कृति के प्रति प्रेम के लिए ख्याति प्राप्त की।
परिहार राजपूत का इतिहास | परिहार वंश का इतिहास | Parihar Rajput History | Parihar Rajput history in Hindi | Parihar Rajputon ka Itihaas | Parihar vansh ka Itihas
भारतीय इतिहास के विशाल फलक पर, परिहार राजपूतों का शासनकाल एक शौर्यशाली अध्याय के रूप में अंकित है। ७ वीं से ११ वीं शताब्दी के मध्य, उन्होंने उत्तर भारत के राजनीतिक परिदृश्य को प्रभावित किया। माना जाता है कि उनकी उत्पत्ति राजस्थान के मेड़ता क्षेत्र से हुई, जो प्राचीन मंडोर राज्य की राजधानी था।
परिहार राजवंश का उदय गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य के रूप में हुआ, जिसकी स्थापना नागभट्ट प्रथम ने की थी। उनके उत्तराधिकारियों ने विस्तारवादी नीति अपनाई, जिसके फलस्वरूप कन्नौज पर विजय प्राप्त हुई। यह नगर उस समय उत्तर भारत का एक प्रमुख राजनीतिक केंद्र था।
परिहार शासनकाल की एक महत्वपूर्ण विशेषता कला और संस्कृति का संरक्षण था। उन्होंने भव्य मंदिरों और स्मारकों का निर्माण करवाया, जो आज भी उनकी स्थापत्य कला कौशल का प्रमाण देते हैं। कन्नौज का त्रिलोकीनाथ मंदिर और ग्वालियर का सास-बहू मंदिर ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं।
परिहार वंश के शासक वीर योद्धा होने के साथ-साथ समाज सुधारक भी थे। उन्होंने जातिवाद और अस्पृश्यता जैसी कुरीतियों को दूर करने के प्रयास किए।
यद्यपि, ११ वीं शताब्दी में परिहार साम्राज्य का पतन होना प्रारंभ हुआ। गजनी के महमूद के आक्रमणों और अन्य उभरते राजपूत वंशों के कारण उनकी शक्ति कमजोर पड़ गई।
परिहार राजपूतों का शासनकाल समाप्त हो चुका है, लेकिन उनका इतिहास युद्ध कौशल, सांस्कृतिक समृद्धि और सामाजिक सुधारों की गाथा सुनाता है। वे भारतीय इतिहास में एक अविस्मरणीय छाप छोड़ गए हैं।
परिहार वंश के राजा | परिहार किसके वंशज है | परिहार राजपूत की वंशावली | Parihar vansh ke Raja | Parihar Rajput Vanshavali
परिहार राजपूतों की उत्पत्ति को लेकर विभिन्न मत हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि वे भगवान राम के अनुज लक्ष्मण के वंशज हैं, जबकि अन्य उन्हें सूर्यवंशी क्षत्रिय मानते हैं।
परिहार वंश में कई शक्तिशाली राजा हुए, जिनमें शामिल हैं:
- नागभट्ट प्रथम (७३०-७६० ईस्वी): गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य की स्थापना की।
- वत्सराज (७८०-८०० ईस्वी): साम्राज्य का विस्तार किया और कन्नौज पर विजय प्राप्त की।
- नागभट्ट द्वितीय (८००-८३० ईस्वी): शक्ति को मजबूत किया और आक्रमणों का प्रतिरोध किया।
- भोज प्रथम (मिहिर भोज) (८३६-८८५ ईस्वी): प्रसिद्ध योद्धा और रणनीतिकार, साम्राज्य का और विस्तार किया।
- महेन्द्रपाल प्रथम (८८५-९१०ईस्वी): आक्रमणों को रोका और कला का संरक्षक।
- भोज द्वितीय (९१६-९५८ ईस्वी): साहित्यिक रचनाओं और विद्वत्ता के लिए जाने जाते हैं।
- महेन्द्रपाल द्वितीय (९४४-९९१ ईस्वी): अन्य राज्यों से चुनौतियों का सामना किया।
- त्रिलोचनपाल (१०१८-१०२७ ईस्वी): धार्मिक संस्थानों का संरक्षक।
- यशपाल (१०२४-१०३६ ईस्वी): विभिन्न दिशाओं से हुए हमलों का सामना किया।
- जशपाल (१०३६ ईस्वी): प्रतिहार वंश का अंतिम ज्ञात शासक।
परिहार वंश के राजाओं की विशेषताएं:
- वीर योद्धा: परिहार राजपूत वीर योद्धा थे, जिन्होंने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की।
- कुशल शासक: वे कुशल शासक थे, जिन्होंने अपने राज्य में सुव्यवस्था और समृद्धि स्थापित की।
- कला और संस्कृति के संरक्षक: परिहार राजपूत कला और संस्कृति के संरक्षक थे, उन्होंने अनेक भव्य मंदिरों और स्मारकों का निर्माण करवाया।
- सामाजिक सुधारक: उन्होंने जातिवाद और अस्पृश्यता जैसी कुरीतियों को दूर करने के प्रयास किए।
परिहार वंश का पतन:
११ वीं शताब्दी में, गजनी के महमूद के आक्रमणों और अन्य उभरते राजपूत वंशों के कारण परिहार वंश का पतन हुआ।
परिहार राजपूतों का योगदान:
परिहार राजपूतों ने भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने कला, संस्कृति, वास्तुकला, और सामाजिक सुधार के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किए।
परिहार वंश का गोत्र | परिहार राजपूत का गोत्र | परिहार राजपूत गोत्र | Parihar Rajput gotra | Parihar vansh ka Gotra
परिहार वंश का गोत्र कश्यप माना जाता है। कश्यप ऋषि के वंशज होने के कारण उन्हें कश्यप गोत्र के अंतर्गत रखा जाता है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि वे गौतम गोत्र के भी हो सकते हैं।
परिहार राजपूत, जिन्हें प्रतिहार भी कहा जाता है, भारत के प्राचीन राजपूत वंशों में से एक हैं। ७ वीं से ११ वीं शताब्दी तक, उन्होंने उत्तर भारत में शासन किया और कला, संस्कृति और वास्तुकला में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
गोत्र का अर्थ है वंश या परिवार। यह एक प्राचीन भारतीय सामाजिक व्यवस्था है, जिसमें लोगों को उनके पूर्वजों के आधार पर विभिन्न समूहों में विभाजित किया जाता है। गोत्र का उपयोग विवाह और सामाजिक रीति-रिवाजों में भी किया जाता है।
परिहार राजपूतों के गोत्र के बारे में विभिन्न मत हैं, लेकिन परिहार राजपूत का गोत्र कश्यप सबसे अधिक स्वीकृत गोत्र है।
परिहार वंश की कुलदेवी | परिहार राजपूत कुलदेवी | Parihar Rajput kuldevi | Parihar Rajput ki kuldevi | Parihar vansh ki kuldevi
परिहार वंश की कुलदेवी चामुंडा माता हैं, जिन्हें गाजण माता के नाम से भी जाना जाता है। चामुंडा माता देवी दुर्गा का एक शक्तिशाली रूप हैं, जो शक्ति और साहस का प्रतीक हैं।
परिहार राजपूतों का मानना है कि चामुंडा माता ने सदैव उनकी रक्षा की है और उनके शासनकाल में उन्हें विजय प्रदान की है। वे माता को अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते हैं और उनके प्रति अटूट श्रद्धा रखते हैं।
गाजण माता का मुख्य मंदिर राजस्थान के मेड़ता शहर में स्थित है। यह मंदिर 8वीं शताब्दी में बनाया गया था और इसे गाजण माता मंदिर के नाम से जाना जाता है।
परिहार राजपूतों के अलावा, कई अन्य राजपूत वंश भी चामुंडा माता को अपनी कुलदेवी मानते हैं।
परिहार राजपूतों के लिए चामुंडा माता केवल एक देवी नहीं, बल्कि उनकी शक्ति, साहस और प्रेरणा का स्रोत हैं। वे सदैव माता की भक्ति करते हैं और उनके आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
परिहार राजवंश के प्रांत | परिहार वंश के प्रांत | परिहार राजपूत ठिकाना | Parihar Rajvansh ke Prant | Parihar Vansh ke Prant
क्र. | प्रांत के नाम | प्रांत का प्रकार |
---|---|---|
१ | अलीपुरा | रियासत |
२ | खानेती | रियासत |
३ | कुम्हारसैन | रियासत |
४ | मालवाड़ा | ठिकाना |
५ | नागौद | रियासत |
६ | समन्दसर | ठिकाना |
७ | टिकुरी | ठिकाना |
८ | त्रिठलू | ठिकाना |
निष्कर्ष | Conclusion
परिहार राजपूत भारतीय इतिहास में एक शौर्यशाली अध्याय हैं। ७ वीं से ११ वीं शताब्दी तक, उन्होंने उत्तर भारत में अपना परचम लहराया। वीर योद्धाओं के रूप में विख्यात, उन्होंने युद्ध कौशल और कुशल प्रशासन के माध्यम से अपने साम्राज्य का विस्तार किया।
परिहार राजपूत केवल युद्धवीर ही नहीं, बल्कि कला और संस्कृति के भी पोषक थे। उनके शासनकाल में निर्मित भव्य मंदिर और स्मारक, उनकी स्थापत्य कला का प्रमाण देते हैं।
हालांकि, ११ वीं शताब्दी में परिहार वंश का पतन हुआ। फिर भी, उनका इतिहास साहस, कलात्मक वैभव और सामाजिक सुधारों की गाथा सुनाता है।
आज भी, परिहार राजपूत समुदाय देश के विभिन्न क्षेत्रों में योगदान दे रहा है। वे अपनी समृद्ध परंपरा और गौरवशाली इतिहास को संजोते हुए, भारत की सांस्कृतिक धारा में बहते रहते हैं।