बैस वंश: बैस राजपूत के रोचक तथ्य | Bais vansh: Bais Rajput ke Rochak Tathya

क्या आप जानते हैं बैस राजपूत किसके वंशज है (Bais Rajput), जिसने सदियों से भारत की रक्षा करते हुए शौर्यगाथाएं लिखीं? आइए, बैस राजपूत का इतिहास, बैस राजपूत की कुलदेवी, बैस राजपूत गोत्र, बैस राजपूत की वंशावली विरासत की अनूठी झलक देखें!

बैस राजपूत का परिचय | बैस वंश का परिचय | Introduction of Bais Rajput Vansh

भारत के वीर राजपूत समुदाय में बैस राजपूत एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इनका इतिहास शौर्य, साहस और सत्ता से जुड़ा हुआ है। माना जाता है कि बैस राजपूत राजा अभय चंद, हर्षवर्धन के २५ वें वंशज थे। उन्होंने ही “बैसवाड़ा” नामक राज्य की स्थापना की थी, जो मुख्य रूप से आज के उत्तर प्रदेश के उन्नाव, रायबरेली और बाराबंकी जिलों के कुछ भागों को मिलाकर बना था।

बैस राजपूतों को उनके २२ परगनों के लिए भी जाना जाता है, जिनमें से कुछ प्रमुख नाम निगोहा, मोहनलालगंज, हसनगंज और डौडियाखेड़ा शामिल हैं। इन परगनों का उल्लेख ऐतिहासिक ग्रंथों में भी मिलता है, जो इस क्षेत्र के वैभव और सामरिक महत्व को दर्शाता है।

यह ब्लॉग पोस्ट बैस राजपूतों के इतिहास, उनकी वीरतापूर्ण गाथाओं और उनके सांस्कृतिक योगदान पर गहन दृष्टि डालेगा। आइए, हम इस गौरवशाली राजपूत वंश के इतिहास के पन्नों को पलटें और उनके शौर्यपूर्ण कारनामों को जानें।

बैस वंश की उत्पत्ति | बैस वंश के संस्थापक | Bais Rajput Vansh ke Sansthapak

बैस राजपूतों की उत्पत्ति को लेकर इतिहासकारों और लोक कथाओं में अलग-अलग मत पाए जाते हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि बैस वंश की शुरुआत हर्षवर्धन से जुड़ी है। हर्षवर्धन ७ वीं शताब्दी के महान शासक थे, जिन्होंने कन्नौज साम्राज्य का विस्तार किया था। माना जाता है कि हर्ष की मृत्यु के बाद उनके वंशज कन्नौज के आसपास ही विभिन्न राज्यों के सामंत के रूप में शासन करते रहे। इनमें से ही एक शाखा “बैस” कहलाई, जो आगे चलकर बैस राजपूत कहलाए।

दूसरी ओर, कुछ लोक कथाओं में बैस वंश की उत्पत्ति को और भी प्राचीन माना जाता है। इन कथाओं के अनुसार, परशुराम जी द्वारा बनाई गई ३६ क्षत्रिय कुलो में से एक “बैलवंश” था, जो समय के साथ “बैसवंश” में बदल गया। हालांकि, इस कथन के लिए अभी तक कोई ठोस सबूत नहीं मिले हैं।

इतिहास में आगे बढ़ते हुए, १३ वीं शताब्दी में राजा अभय चंद सिंह का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि उन्होंने “भर” जाति के राजाओं को हराकर “बैसवाड़ा” की स्थापना की। यह घटना बैस राजपूतों के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ है, जिसने उन्हें एक स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिलाया।

बैस वंश की उत्पत्ति के पीछे चाहे जो भी कारण या किंवदंतियां हों, एक बात स्पष्ट है कि यह वंश भारत के इतिहास में शौर्य और सत्ता का एक प्रमुख हिस्सा रहा है।

बैस राजपूत का इतिहास | बैस वंश का इतिहास | बैस राजपूत हिस्ट्री इन हिंदी | Bais Rajput ka Itihas | Bais Rajput History in Hindi

बैस राजपूतों का इतिहास वीरता के रंगों में सना हुआ एक ऐसा चित्र है, जिसे भारत की धरती पर सदियों से संजोया जाता रहा है। इनके उत्थान और पतन की कहानी युद्धों की गर्जना, सामरिक कौशल के प्रदर्शन और सांस्कृतिक समृद्धि से भरपूर है।

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि बैस वंश की जड़ें महाराजा हर्षवर्धन से जुड़ी हैं। ७ वीं शताब्दी के इस विख्यात सम्राट के वंशज कन्नौज साम्राज्य के पतन के बाद विभिन्न राज्यों के अंतर्गत सामंत के रूप में शासन करते रहे। उन्हीं में से एक शाखा “बैस” कहलायी, जो आगे चलकर बैस राजपूतों के नाम से जानी गई।

दूसरी ओर, लोक कथाओं में बैस वंश की उत्पत्ति को परशुराम जी द्वारा निर्मित ३६ क्षत्रिय कुलों में से एक “बैलवंश” से जोड़ा जाता है। माना जाता है कि समय के साथ यह “बैसवंश” में बदल गया। हालांकि, इस कथन के लिए अभी तक कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिल पाए हैं।

इतिहास के पन्नों को पलटते हुए, १३ वीं शताब्दी में राजा अभय चंद सिंह एक योद्धा के रूप में उभर कर सामने आते हैं। इन वीर योद्धा ने “भर” जाति के राजाओं को युद्ध में परास्त कर “बैसवाड़ा” नामक राज्य की स्थापना की। यह घटना बैस राजपूतों के इतिहास में एक मील का पत्थर है। बैसवाड़ा मुख्य रूप से आज के उत्तर प्रदेश के उन्नाव, रायबरेली और बाराबंकी जिलों के कुछ भागों को मिलाकर बना था। उन्होंने डौडियाखेड़ा को अपनी राजधानी बनाकर शासन किया।

अपने शासनकाल में बैस राजपूत २२ परगनों के लिए विख्यात थे। निगोहा, मोहनलालगंज, हसनगंज और डौडियाखेड़ा कुछ प्रमुख परगने थे।  इन परगनों का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है, जो इस क्षेत्र के वैभव और सामरिक महत्व को दर्शाता है।

बैस राजपूतों का इतिहास युद्धों और वीरता के किस्सों से भरा पड़ा है। दिल्ली सल्तनत के आक्रमणों का उन्होंने डटकर मुकाबला किया। इतिहास गवाह है कि त्रिलोकचंद बैस ने शर्की सुल्तानों के विरुद्ध युद्ध लड़ा और उन्हें परास्त कर खदेड़ दिया। इसी प्रकार, मुगल शासन के दौरान भी बैस राजपूतों ने अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए संघर्षरत रहे।

बैस राजा युद्ध कौशल में निपुण योद्धा माने जाते थे। उन्होंने बाहरी आक्रमणों का डटकर मुकाबला किया। दिल्ली सल्तनत के शासकों से लेकर मुगल साम्राज्य के विस्तार के दौरान भी बैस राजपूतों ने अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए निरंतर संघर्ष किया।

बैस राजपूतों की वीरता सिर्फ युद्धक्षेत्र तक ही सीमित नहीं थी। १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम में भी उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। उनके अंतिम शासक बाबू रामबख्श सिंह ब्रिटिश राज के विरुद्ध लड़े और अंग्रेजों द्वारा फांसी दिए जाने का गौरव प्राप्त किया। हालांकि, इस विद्रोह के बाद ब्रिटिश राज द्वारा उनके राज्य को जब्त कर लिया गया।

बैस राजपूतों का इतिहास सिर्फ राजनीति और युद्धों तक ही सीमित नहीं है। कला, संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में भी इनका उल्लेखनीय योगदान रहा है। उनके द्वारा निर्मित भव्य मंदिर और किले उनके स्थापत्य कौशल का प्रमाण हैं। उदाहरण के लिए, सीतापुर जिले में स्थित पातालेश्वर महादेव मंदिर, उनकी स्थापत्य शैली का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। साथ ही, लोकगीतों और कहानियों में उनके वीरतापूर्ण कारनामों का वर्णन मिलता है। ये गाथाएं पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहीं और बैस राजपूत समुदाय की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा

बैस वंश के राजा और उनकी उपलब्धियां | बैस वंश के प्रमुख शासक और उनकी उपलब्धियां | Kings of Bais Vansh

बैस राजपूत वंश का इतिहास शौर्य और उपलब्धियों से जुड़ा हुआ है। इस वंश ने कई कुशल शासक देखे, जिन्होंने न केवल राज्य का विस्तार किया बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान भी दिया।

प्रमुख शासक:

  • राजा अभय चंद सिंह (१२ वीं शताब्दी): इन्होंने “बैसवाड़ा” राज्य की स्थापना की और डौडियाखेड़ा को राजधानी बनाया। उनके नेतृत्व में २२ परगनों का एक मजबूत राज्य खड़ा हुआ।
  • त्रिलोकचंद बैस (१५ वीं शताब्दी): अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध, त्रिलोकचंद ने शर्की सुल्तानों को युद्ध में पराजित किया।
  • राजा राम सिंह (१६ वीं शताब्दी): मुगल सम्राट अकबर के दरबार में सम्मानित स्थान प्राप्त करने वाले राजा राम सिंह ने कला और संस्कृति को भी बढ़ावा दिया।
  • बाबू रामबख्श सिंह (१९ वीं शताब्दी): १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाने वाले बाबू रामबख्श सिंह ब्रिटिश राज के विरुद्ध लड़ते हुए शहीद हुए।

उल्लेखनीय उपलब्धियां:

  • कला और स्थापत्य: पातालेश्वर महादेव मंदिर (सीतापुर) और रामगढ़ किला (बाराबंकी) बैस राजपूतों के स्थापत्य कौशल के प्रमाण हैं।
  • साहित्य: लोकगीतों और कहानियों में उनके वीरतापूर्ण कारनामों का वर्णन आज भी प्रचलित है।
  • युद्ध और रणनीति: दिल्ली सल्तनत और मुगलों के आक्रमणों का डटकर मुकाबला किया। साथ ही १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम में भी भाग लिया।

बैस वंश के शासकों का इतिहास शौर्य, कूटनीति और सांस्कृतिक समृद्धि का प्रतीक है। उनकी उपलब्धियां आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेंगी।

बैस राजपूत की वंशावली | बैस वंश की वंशावली | Bais Rajput ki vanshavali | Bais vansh ki Vanshavali 

बैस राजपूत वंश का इतिहास शौर्य गाथाओं और वीर शासकों से भरा हुआ है। सदियों से भारत की धरती पर अपना परचम लहराने वाले इस वंश ने कई कुशल और साहसी राजाओं को जन्म दिया। आइए, एक नजर डालते हैं बैस राजपूत वंश के कुछ प्रमुख शासकों पर (वर्ष का अनुमानित काल):

१. राजा अभय चंद सिंह (१२ वीं शताब्दी): वीर योद्धा जिन्होंने “बैसवाड़ा” राज्य की स्थापना की और डौडियाखेड़ा को राजधानी बनाया।

२. त्रिलोकचंद बैस (१५ वीं शताब्दी): अपनी वीरता और रणनीति के लिए प्रसिद्ध, त्रिलोकचंद ने शर्की सुल्तानों को युद्ध में पराजित किया।

३. राजा राम सिंह (१६ वीं शताब्दी): मुगल सम्राट अकबर के दरबार में सम्मानित स्थान प्राप्त करने वाले राजा राम सिंह ने कला और संस्कृति को भी बढ़ावा दिया।

४. राजा मदन सिंह (१६ वीं शताब्दी): मुगल शासन के साथ कुशलतापूर्वक संबंध बनाए रखने में सफल रहे।

५. राजा उदयभान सिंह (१७ वीं शताब्दी): मुगल शासन के विरुद्ध संघर्ष करने वाले राजा उदयभान सिंह अपने साहस के लिए जाने जाते थे।

६. राजा नरसिंहदेव (१७ वीं शताब्दी): साहित्य और कला के संरक्षक के रूप में जाने जाते थे।

७. राजा जसवंत सिंह (१८ वीं शताब्दी): कला और स्थापत्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान देने वाले राजा जसवंत सिंह के शासनकाल में कई मंदिरों का निर्माण हुआ।

८. राजा रघुराज सिंह (१८ वीं शताब्दी): कुशल प्रशासक, राज्य की समृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

९. राजा जयंत सिंह (१८ वीं शताब्दी): बाहरी आक्रमणों का डटकर मुकाबला करने वाले शासक।

१०. राजा विजय सिंह (१८ वीं शताब्दी): मराठा साम्राज्य के विस्तार के दौरान संघर्षरत रहे।

११. महाराजा दुर्जन सिंह (१८ वीं-१९ वीं शताब्दी): ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ संघर्ष करने वाले शासक।

१२. राजा बलवंत सिंह (१८ वीं-१९ वीं शताब्दी): विद्वान और कूटनीतिज्ञ राजा, पड़ोसी राज्यों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने में सफल।

१३. राजा जगत सिंह (१९ वीं शताब्दी): सामाजिक सुधारों के लिए जाने जाते थे।

१४. राजा गजेंद्र सिंह (१९ वीं शताब्दी): प्रगतिशील शासक, शिक्षा और व्यापार को बढ़ावा दिया।

१५. बाबू रामबख्श सिंह (१९ वीं शताब्दी): 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते हुए शहीद हुए अंतिम शासक।

यह सूची संपूर्ण नहीं है, लेकिन बैस राजपूत वंश के गौरवशाली इतिहास की एक झलक अवश्य प्रस्तुत करती है। इन शासकों के शौर्य, कूटनीति और सांस्कृतिक योगदान को इतिहास सदैव याद रखेगा।

बैस राजपूत गोत्र | बैस वंश का गोत्र | Bais Rajput Gotra | Bais vansh gotra

बैस राजपूत वंश के इतिहास में उनके गोत्र को लेकर सदियों से बहस चली आ रही है। हालाँकि, सर्व साधारण तौर पर बैस राजपूत का गोत्र भारद्वाज पाया जाता है, लेकिन यह सम्बन्ध पूर्णतया स्पष्ट नहीं है। आइए, इस जटिलता को समझने का प्रयास करें।

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि बैस राजपूत सूर्यवंशी क्षत्रियों से उत्पन्न हुए हैं। इस मत का आधार प्राचीन ग्रंथों में “सूर्यवंशी” राजाओं द्वारा “बहि” जाति को पराजित करने का उल्लेख है। समय के साथ “बहि” जाति के कुछ लोग क्षत्रिय धर्म अपनाकर “बैस” कहलाए जाने लगे।

दूसरी ओर, कुछ विद्वानों का मानना है कि बैस राजपूत मूल रूप से “अग्निवंशी” क्षत्रिय हैं। इस मत के अनुसार, किसी समय अग्नि से उत्पन्न होने वाले कुश वंश के राजाओं के वंशज “बैस” कहलाए।

कुछ लोग “बैस” को एक अलग गोत्र के रूप में भी मानते हैं। इस मत का समर्थन करने के लिए वे विभिन्न शिलालेखों और तांबे के पत्रों का हवाला देते हैं जिनमें “बैस” गोत्र का उल्लेख मिलता है।

विभिन्न मत:

  • ऐतिहासिक साक्ष्य का अभाव: बैस राजपूतों के आरंभिक इतिहास में गोत्रों का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। प्राचीन ग्रंथों में वंशावली और उपलब्धियों का वर्णन तो है, पर गोत्रों की चर्चा नहीं है।
  • समय के साथ परिवर्तन: यह संभावना है कि समय के साथ विभिन्न समुदायों के एकीकरण या विवाह संबंधों के कारण गोत्रों में परिवर्तन आया हो।
  • भारद्वाज गोत्र का अल्पसंख्यक होना: बैस राजपूतों में भारद्वाज गोत्र अपेक्षाकृत कम पाया जाता है। अधिकांश परिवारों में अन्य गोत्रों का उल्लेख मिलता है।

बैस राजपूत की कुलदेवी | बैस वंश की कुलदेवी | Bais Rajput ki Kuldevi

बैस राजपूत की कुलदेवी माता काली, जिन्हें कालिका माता के नाम से भी जाना जाता है, कुलदेवी के रूप में पूजनीय हैं। उनका शक्तिशाली और भयंकर स्वरूप बुरी शक्तियों से रक्षा का प्रतीक माना जाता है।

यह स्पष्ट नहीं है कि बैस राजपूतों में कालिका माता की उपासना कब शुरू हुई, लेकिन यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। लोक मान्यता के अनुसार, कई बैस राजपूत शासकों ने युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए कालिका माता का आशीर्वाद लिया और विजयी होने पर उनके सम्मान में मंदिर बनवाए।

बैस राजपूत बहुल क्षेत्रों में कालिका माता के कई मंदिर स्थापित हैं। इन मंदिरों में वर्ष के दौरान विशेषकर नवरात्रि में पूजा-अर्चना का आयोजन होता है। यज्ञ और ज्योतिषीय अनुष्ठान भी किए जाते हैं। बैस राजपूत परिवार के महत्वपूर्ण कार्यक्रमों जैसे विवाह या गृह प्रवेश से पहले भी कालिका माता का आशीर्वाद लेने की परंपरा है।

कालिका माता को प्रसन्न करने के लिए बैस राजपूत विभिन्न उपहार चढ़ाते हैं। इसमें लाल वस्त्र, श्रृंगार का सामान, मिठाई भी शामिल है।

कालिका माता की पूजा न केवल बैस राजपूतों की रक्षा और विजय का प्रतीक है, बल्कि यह उनकी सांस्कृतिक पहचान और परंपराओं को भी दर्शाती है।

बैस राजवंश के प्रांत | Bais Vansh ke Prant

क्र.प्रांत के नामप्रांत का प्रकार
बसंतपुरजमींदारी
कस्मंदातालुका
खजूरगाँव थलराइतालुका
कुर्री सुदाउलीतालुका
पिलखातालुका
सिहोराजमींदारी

निष्कर्ष  | Conclusion

बैस राजपूत वंश का इतिहास वीरता और समृद्धि से भरा हुआ है। सदियों से भारत की रक्षा करने वाले इस वंश ने कुशल शासन, युद्ध कौशल और सांस्कृतिक योगदान के लिए ख्याति प्राप्त की। राजा अभय चंद सिंह से लेकर बाबू रामबख्श सिंह तक, इन शासकों ने वीरता पूर्वक शासन किया और कला, स्थापत्य, शिक्षा और व्यापार को बढ़ावा दिया। हालांकि, उनके गोत्र को लेकर अभी भी अनिश्चितता बनी हुई है।

बैस राजपूतों की कुलदेवी कालिका माता की पूजा उनकी परंपराओं और आस्था को दर्शाती है। भविष्य के शोध से उनके इतिहास के विभिन्न पहलुओं, खासकर गोत्र के रहस्य को उजागर करने में मदद मिल सकती है। निष्कर्ष रूप में, बैस राजपूत वंश भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जिसने शौर्य और सांस्कृतिक समृद्धि की विरासत छोड़ी है।

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