परमार राजपूत (Parmar vansh), मध्यकालीन भारत के प्रमुख राजपूत वंशों में से एक, जो मध्य भारत में शासन करते थे। आइये जानते है परमार राजपूत का इतिहास, परमार वंश की वंशावली, परमार राजपूत का गोत्र और कुलदेवी और ऐसी ही कई जानकारियां|
परमार राजपूत का परिचय | परमार वंश का परिचय | Introduction of Parmar Rajput Vansh
परमार एक राजपूत राजवंश था जिसने ८ वीं से १४ वीं शताब्दी तक मध्य भारत के महत्वपूर्ण हिस्सों पर शासन किया। इस वंश के शासकों ने धार, मालवा, उज्जैन, आबू पर्वत और सिंधु के निकट अमरकोट आदि क्षेत्रों में शासन किया।
परमार वंश का उद्भव निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि वे क्षत्रिय थे, जबकि अन्य उन्हें गुर्जरों से जोड़ते हैं।
परमार राजवंश के कई महत्वपूर्ण शासक थे। भोज (१०००-१०५५) सबसे प्रसिद्ध शासकों में से एक थे। उन्होंने कला, साहित्य और संस्कृति को प्रोत्साहन दिया। भोज ने धार नगरी को अपनी राजधानी बनाया और कई मंदिरों और स्मारकों का निर्माण करवाया।
परमार राजपूत ने कला, साहित्य और वास्तुकला के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने कई भव्य मंदिरों का निर्माण करवाया, जिनमें धार के भोजशाला मंदिर, उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर और खजुराहो के मंदिर शामिल हैं।
१४ वीं शताब्दी में, परमार राजवंश दिल्ली सल्तनत के बढ़ते प्रभाव के कारण कमजोर हो गया। १३०५ में, अलाउद्दीन खिलजी ने धार पर आक्रमण किया और परमार राजपूतों को पराजित किया।
परमार वंश की उत्पत्ति | परमार वंश के संस्थापक | Parmar Rajput Vansh ke Sansthapak
परमार राजवंश, जिसने ८ वीं से १४ वीं शताब्दी तक मध्य भारत के बड़े हिस्से पर धाक जमाई, अपनी जटिल उत्पत्ति और प्रारंभिक शासन के रहस्यों से इतिहासकारों को सदियों से आकर्षित करता रहा है। विभिन्न ऐतिहासिक स्रोत और किंवदंतियां इस वंश के उद्भव के बारे में परस्पर विरोधी सिद्धांत प्रस्तुत करती हैं:
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि परमार प्राचीन सूर्यवंशी राजाओं से निकले क्षत्रिय थे, जो भारत के प्राचीनतम राजवंशों में से एक माने जाते हैं। यह सिद्धांत परमार वंश को एक शाही और प्रतिष्ठित वंशावली से जोड़ता है।
अन्य विद्वानों का मत है कि परमार का संबंध मध्य एशिया से आए गुर्जर समुदाय से था। यह सिद्धांत परमार राजपूत को मध्य एशियाई मूल से जोड़ता है, जिससे उनकी सांस्कृतिक और जातीय विरासत के बारे में प्रश्न उठते हैं।
कुछ किंवदंतियों में परमार वंश को अग्नि देव, अग्नि के हिंदू देवता, के वंशज के रूप में दर्शाया गया है। यह दावा इतिहास से अधिक पौराणिक क्षेत्र में प्रवेश करता है, लेकिन यह परमार राजवंश के चारों ओर बनाए गए लोकप्रिय आख्यानों को दर्शाता है।
संस्थापक के संबंध में भी अस्पष्टता बनी हुई है। कुछ स्रोतों में ९ वीं शताब्दी की शुरुआत में उपेंद्र (कृष्णराज) को परमार वंश का संस्थापक माना जाता है, जबकि अन्य धवल को इस पद पर आसीन करते हैं। इन विसंगतियों के कारण परमार वंश की उत्पत्ति का समय और संस्थापक व्यक्तित्व का निर्धारण करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
प्रारंभिक शासकों में वास्तुपाल (८४३ – ८६० ईस्वी) और उनके पुत्र सीहा (८६०-९१० ईस्वी) शामिल थे। इन शासकों ने वंश की नींव मजबूत करने और क्षेत्रीय विस्तार की शुरुआत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वास्तुपाल ने अपनी राजधानी उज्जैन में स्थापित की और कला और संस्कृति को संरक्षण दिया, जबकि सीहा ने मालवा क्षेत्र में अपना वर्चस्व बढ़ाया।
परमार वंश की जटिल उत्पत्ति और प्रारंभिक शासन का इतिहास अभी भी शोधकर्ताओं के लिए जिज्ञासा का विषय बना हुआ है। आने वाली पीढ़ियों के लिए यह इतिहास के उन रहस्यों में से एक है, जिन्हें उजागर करने और समझने का प्रयास जारी रहेगा।
परमार राजपूत का इतिहास | परमार वंश का इतिहास | परमार राजपूत हिस्ट्री इन हिंदी | Parmar Rajput History
परमार राजपूतों का इतिहास मध्यकालीन भारत में शौर्य, कलात्मक उत्कृष्टता और क्षेत्रीय विस्तार का एक प्रेरक गाथा है। ८ वीं से १४ वीं शताब्दी तक, इस वंश ने मध्य भारत के महत्वपूर्ण हिस्सों पर शासन किया, धार, मालवा, उज्जैन, आबू पर्वत और सिंधु के निकट अमरकोट जैसे क्षेत्रों में अपना प्रभाव जमाते हुए।
प्रारंभिक उत्थान और साम्राज्य निर्माण:
वंश की स्थापना ९ वीं शताब्दी की शुरुआत में उपेंद्र (कृष्णराज) द्वारा मानी जाती है। वास्तुपाल (८४३-८६० ईस्वी) और सीहा (८६०-९१० ईस्वी) जैसे प्रारंभिक शासकों ने वंश की नींव मजबूत की और क्षेत्रीय विस्तार की शुरुआत की।
राजा सिह (९१६-९४६ ईस्वी) परमार शक्ति के वास्तविक संस्थापक के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने मालवा पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित किया और गुर्जर-प्रतिहारों को कई बार पराजित किया।
भोज (१०००-१०५५ ईस्वी) को परमार राजवंश का सबसे प्रसिद्ध शासक माना जाता है। उन्होंने धार को अपनी राजधानी बनाया और कला, साहित्य, विज्ञान और वास्तुकला को संरक्षण दिया। उनके शासनकाल में विद्वानों और कलाकारों का जमावड़ा लगा और भोजशाला मंदिर सहित कई भव्य स्मारक बनाए गए।
युद्ध और कूटनीति:
परमार राजपूत को कुशल योद्धाओं के रूप में जाना जाता था, जिन्होंने गुर्जर-प्रतिहारों, चालुक्यों और राष्ट्रकूटों जैसे शक्तिशाली पड़ोसियों के साथ युद्ध लड़े। वे कुशल कूटनीतिज्ञ भी थे, जिन्होंने रणनीतिक गठबंधन बनाकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। उदाहरण के लिए, भोज ने चोल राजा राजेंद्र प्रथम के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए।
कलात्मक विरासत और सांस्कृतिक योगदान:
परमार शासक कला और संस्कृति के महान संरक्षक थे। उन्होंने मंदिर निर्माण, मूर्तिकला, साहित्य और विज्ञान को प्रोत्साहन दिया। खजुराहो के प्रसिद्ध मंदिर परिसर, भोजशाला मंदिर और उज्जैन का महाकालेश्वर मंदिर परमार शासनकाल की स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण है।
भोज स्वयं एक महान विद्वान और बहुमुखी प्रतिभा थे। उन्होंने विभिन्न विषयों पर ग्रंथ लिखे, जिनमें “सारस्वती कंठाभरण” (कविता) और “समरांगण सूत्रधार” (वास्तुकला) शामिल हैं।
परमार वंश का पतन
१४ वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत के बढ़ते प्रभाव के कारण परमार राजवंश कमजोर हो गया। १३०५ में, अलाउद्दीन खिलजी ने धार पर आक्रमण किया और परमार राजपूतों को पराजित किया।
परमार राजपूतों का इतिहास वीरता, कलात्मक उत्कृष्टता और सांस्कृतिक विरासत का एक प्रेरक गाथा है। उनकी उपलब्धियां – भव्य मंदिरों का निर्माण, साहित्य का संरक्षण और विज्ञान में योगदान – आज भी भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं।
परमार वंश के राजा और उनकी उपलब्धियां | परमार वंश के प्रमुख शासक और उनकी उपलब्धियां | Kings of Parmar Vansh
परमार वंश, 8वीं से 14वीं शताब्दी तक मध्य भारत के प्रमुख शासकों में से एक था। इस वंश ने मालवा, धार, उज्जैन और आबू पर्वत जैसे क्षेत्रों पर शासन किया, उनके शासनकाल ने कला, युद्ध कौशल और स्थापत्य में कई उल्लेखनीय उपलब्धियां देखीं। आइए कुछ प्रमुख शासकों और उनकी विरासत पर एक नज़र डालें:
भोज (१०००-१०५५ ईस्वी):
परमार वंश के सबसे प्रसिद्ध शासकों में से एक, भोज को एक महान विद्वान, प्रशासक और कला संरक्षक के रूप में जाना जाता है। उन्होंने धार को अपनी राजधानी बनाया और भव्य भोजशाला मंदिर का निर्माण करवाया। भोज को विज्ञान, साहित्य और कला में उनकी गहरी रुचि के लिए जाना जाता था। उन्होंने “सारस्वती कंठाभरण” और “समरांगण सूत्रधार” जैसे ग्रंथों की रचना की।
सिह (९१६-९४६ ईस्वी):
सिह ने परमार शक्ति को मजबूत किया और मालवा पर पूर्ण नियंत्र स्थापित किया। उन्होंने कई मौकों पर शक्तिशाली गुर्जर-प्रतिहारों को युद्ध में पराजित किया, जिससे परमारों की प्रतिष्ठा बढ़ी।
जयसिंह (१०५५-१०७० ईस्वी):
जयसिंह का शासनकाल दक्षिण के शक्तिशाली चालुक्य राजा सोमेश्वर प्रथम के विस्तारवादी अभियानों का सामना करने के लिए जाना जाता है। उन्होंने चालुक्यों को सीमा पार करने से रोकने में सफलता हासिल की।
उदयदित्य (१०७०-१११० ईस्वी):
उदयदित्य का शासनकाल चंदेल राजवंश के साथ संघर्षों से चिह्नित था। उन्होंने चंदेलों को कई बार पराजित किया और अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया।
नरवर्मान (१११०-११३० ईस्वी):
नरवर्मान को गुजरात के चालुक्य शासकों के साथ संघर्षों का सामना करना पड़ा। हालांकि, उनकी वीरता और रणनीति के कारण वह अपने राज्य की रक्षा करने में सफल रहे।
यशवर्मान (११३०-११५५ ईस्वी):
यशवर्मान ने अपने पड़ोसियों के साथ युद्ध में उलझने के बजाय कूटनीति और रणनीतिक गठबंधनों के माध्यम से शासन किया। उन्होंने अपने राज्य के विस्तार का प्रयास किया, लेकिन उन्हें सीमित सफलता मिली।
वसुदेव (१२०६-१२१६ ईस्वी):
वसुदेव के शासनकाल में दिल्ली सल्तनत का शक्ति बढ़ना शुरू हो गया था। उन्हें दिल्ली सल्तनत के बढ़ते प्रभाव का सामना करना पड़ा, जिसने अंततः १४ वीं शताब्दी में परमार वंश के पतन में योगदान दिया।
परमार वंश की कलात्मक विरासत:
परमार शासक कला और स्थापत्य के महान संरक्षक थे। उन्होंने खजुराहो के प्रसिद्ध मंदिर परिसर, भोजशाला मंदिर और उज्जैन का महाकालेश्वर मंदिर जैसे स्थापत्य चमत्कारों का निर्माण करवाया। ये मंदिर न केवल उनकी भव्यता के लिए बल्कि उनकी मूर्तिकला और शिल्प कौशल के उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में भी प्रसिद्ध हैं।
परमार वंश का इतिहास कला, साहित्य, युद्ध कौशल और स्थापत्य में उनके योगदान को रेखांकित करता है। भले ही उनका शासन १४ वीं शताब्दी में समाप्त हो गया, उनकी विरासत आज भी मध्य भारत की संस्कृति और इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है।
परमार वंश की वंशावली | Parmar vansh ki vanshavali | Parmar vansh ke Raja
परमार राजपूतों का शासनकाल मध्यकालीन भारत में एक महत्वपूर्ण अध्याय है। लगभग छह शताब्दी तक राज्य करने वाले इस वंश ने कला, युद्ध और क्षेत्रीय विस्तार में उल्लेखनीय योगदान दिया। आइए उनकी वंशावली पर एक नज़र डालें:
प्रारंभिक शासक (८ वीं – ९ वीं शताब्दी):
- उपेंद्र (कृष्णराज): वंश के संस्थापक माने जाते हैं।
- वास्तुपाल (८४३-८६० ईस्वी): उज्जैन को राजधानी बनाया, कला और संस्कृति को संरक्षण दिया।
- सीहा (८६०-९१० ईस्वी): मालवा क्षेत्र में वर्चस्व बढ़ाया।
साम्राज्य निर्माण के शिल्पकार (१० वीं – ११ वीं शताब्दी):
- सीह II (९१०-९१६ ईस्वी): गुर्जर-प्रतिहारों को चुनौती देना शुरू किया।
- सिह (९१६-९४६ ईस्वी): मालवा पर पूर्ण नियंत्र स्थापित किया, गुर्जर-प्रतिहारों को कई बार पराजित किया।
- लक्ष्मण (९४६-९७४ ईस्वी): प्रशासनिक सुधारों को लागू किया।
- विनायकपाल (९७४-९९५ ईस्वी): शैक्षणिक संस्थानों को बढ़ावा दिया।
- भोज (१०००-१०५५ ईस्वी): कला, साहित्य, विज्ञान और वास्तुकला का महान संरक्षक, धार को राजधानी बनाया, भोजशाला मंदिर का निर्माण करवाया।
परवर्ती शासक (१२ वीं – १४ वीं शताब्दी):
- जयसिंह (१०५५-१०७० ईस्वी): चालुक्य राजा सोमेश्वर I को रोकने में सफल रहे।
- उदयदित्य (१०७०-१११० ईस्वी): चंदेलों से युद्ध किया।
- नरवर्मान (१११०-११३० ईस्वी): गुजरात के चालुक्य शासकों से संघर्ष किया।
- यशवर्मान (११३०-११५५ ईस्वी): क्षेत्रीय विस्तार का प्रयास किया।
- वसुदेव (१२०६-१२१६ ईस्वी): दिल्ली सल्तनत के बढ़ते प्रभाव का सामना किया।
परमार वंश का पतन १४ वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत के आक्रमणों के कारण हुआ। हालांकि, इस वंश का शासनकाल कला, साहित्य, वास्तुकला और युद्ध कौशल में उनकी उपलब्धियों के कारण इतिहास में सदैव अंकित रहेगा।
परमार राजपूत गोत्र लिस्ट | परमार वंश की गोत्र | Parmar Rajput Gotra | Parmar Rajput vansh gotra
परमार राजपूतों की गोत्रों के बारे में निश्चित जानकारी देना चुनौतीपूर्ण है। ऐसा इसलिए है क्योंकि: परमार राजवंश के शासनकाल से संबंधित विस्तृत वंशावली या गोत्र संबंधी दस्तावेजों का अभाव है। सदियों से चली आ रही सामाजिक संरचना में बदलाव और विभिन्न समुदायों के बीच अंतर्जातीय विवाहों के कारण गोत्रों का निर्धारण जटिल हो जाता है। साथ ही “परमार” उपनाम विभिन्न जातियों और समुदायों में पाया जाता है, न सिर्फ परमार राजपूतों में।
हालांकि, कुछ स्रोतों और परंपराओं के अनुसार, परमार राजपूतों की कुछ संभावित गोत्रों में निम्नलिखित शामिल हो सकती हैं:
- हर्ष: यह गोत्र भगवान शिव से जुड़ी मानी जाती है।
- कौशिक: यह गोत्र प्राचीन ऋषि विश्वामित्र से जुड़ी है।
- गौतम: यह गोत्र प्राचीन ऋषि गौतम से जुड़ी है।
- बहरूपिया: यह गोत्र कम ही पाई जाती है और माना जाता है कि इसका संबंध किसी ऐतिहासिक घटना या परंपरा से है।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि उपरोक्त सूची पूर्ण नहीं है और विभिन्न स्रोतों में भिन्नता हो सकती है। गोत्र का निर्धारण व्यक्तिगत स्तर पर वंशावली और पारिवारिक परंपराओं के आधार पर किया जाता है।
परमार वंश की कुलदेवी | परमार वंश के कुलदेवता | परमार राजपूत की कुलदेवी | Parmar Rajput Kuldevi
परमार राजपूतों की कुलदेवी के बारे में अलग-अलग मत पाए जाते हैं। कुछ स्रोतों और परंपराओं के अनुसार, परमार राजवंश की कुलदेवी मां काली हैं।
मां काली को शक्ति और सुरक्षा की देवी के रूप में पूजा जाता है। उन्हें अक्सर भयंकर रूप में दर्शाया जाता है, जो बुरी शक्तियों का नाश करने और भक्तों की रक्षा करने की उनकी क्षमता का प्रतीक है।
हालांकि, अन्य स्रोतों में परमार वंश की कुलदेवी के रूप में सच्चीयाय माता का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि इनकी मंदिर राजस्थान के पाली जिले के बूसी गांव में स्थित है।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि कुलदेवी की पूजा प्रत्येक परिवार या समुदाय की व्यक्तिगत आस्था और परंपराओं पर आधारित होती है।
परमार राजवंश के प्रांत | Parmar Vansh ke Prant
क्र. | प्रांत के नाम | प्रांत का प्रकार |
---|---|---|
१ | आगरा बार्खेरा | ठिकाना |
२ | अमरकोट | जागीर |
३ | बाघल | रियासत |
४ | बघात | रियासत |
५ | बलसान | रियासत |
६ | बम्बोरी | जागीर |
७ | बामरोली | ठिकाना |
८ | बेरी | रियासत |
९ | भटखेड़ा | जागीर |
१० | भैंसोला | जागीर |
११ | बिजोलियाँ | ठिकाना |
१२ | चौगाईं | जमींदारी |
१३ | चौगाईं | जमींदारी |
१४ | छतरपुर | रियासत |
१५ | दांता | रियासत |
१६ | देवास छोटा | रियासत |
१७ | देवास बड़ा | रियासत |
१८ | धलभूम ज़म्बोनी | जमींदारी |
१९ | धार | रियासत |
२० | धुवांखेड़ी | जागीर |
२१ | डुमरतर | तालुक |
२२ | डुमराँव | जमींदारी |
२३ | गंगपुर | रियासत |
२४ | गरही भेन्सोला | ठिकाना |
२५ | हापा | रियासत |
२६ | हीरापुर | तालुक |
२७ | इताउन्जा | तालुक |
२८ | जगदीशपुर | जमींदारी |
२९ | जैतसीसर | ठिकाना |
३० | जम्बुगोधा | रियासत |
३१ | झाड़ोल | जागीर |
३२ | किला अमरगढ़ | जागीर |
३३ | लौटाना | ठिकाना |
३४ | मोहनपुर | रियासत |
३५ | मोटी भलसान | जागीर |
३६ | मुली | रियासत |
३७ | नहारसर | ठिकाना |
३८ | नरसिंहगढ़ | रियासत |
३९ | नावा खेरा | ठिकाना |
४० | पलास्नी | रियासत |
४१ | पंचकोट | जमींदारी |
४२ | फलतान | रियासत |
४३ | प्रतापपुर | जागीर |
४४ | राजगढ़ | रियासत |
४५ | रनासन | रियासत |
४६ | रणासर | ठिकाना |
४७ | संत | रियासत |
४८ | शकरपूरा व बहादूरपुर | जमींदारी |
४९ | शामगढ़ | ठिकाना |
५० | सोनपालसर | ठिकाना |
५१ | सुदासना | ठिकाना |
५२ | सुदास्ना | रियासत |
५३ | सुर्गना | रियासत |
५४ | टेहरी गढ़वाल | रियासत |
५५ | ठेका | जमींदारी |
५६ | तिरहूत | जमींदारी |
५७ | वैराग | जागीर |
५८ | वड़ागाम | रियासत |
परमार राजपूत की शाखा | परमार वंश की शाखाएं और उनके नाम | Parmar Vansh ki Shakhayen
परमार राजपूतों की शाखाओं के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है। ऐतिहासिक साक्ष्यों की कमी और सदियों से चले आ रहे सामाजिक परिवर्तनों के कारण शाखाओं का स्पष्ट वर्गीकरण करना कठिन हो जाता है।
हालांकि, कुछ स्रोतों और परंपराओं के अनुसार, परमार वंश की कुछ संभावित शाखाओं के नाम इस प्रकार हैं:
- ढाबी: यह माना जाता है कि यह शाखा मालवा क्षेत्र में निवास करती थी।
- सोनी: यह शाखा मुख्य रूप से सोने के आभूषण बनाने के व्यवसाय से जुड़ी मानी जाती है।
- सोलंकी: यह गुजरात क्षेत्र में पाए जाने वाली एक प्रमुख शाखा है।
- चौहान: कुछ स्रोतों के अनुसार, परमार राजपूतों और चौहान राजपूतों के बीच ऐतिहासिक संबंध थे, जिसके कारण कुछ परमार वंशज “चौहान” उपनाम का प्रयोग करते थे।
यह ध्यान रखना जरूरी है कि उपरोक्त सूची पूर्ण नहीं है और विभिन्न स्रोतों में भिन्नता हो सकती है। शाखाओं का निर्धारण पारिवारिक परंपराओं और वंशावली के आधार पर व्यक्तिगत स्तर पर ही किया जा सकता है।
निष्कर्ष | Conclusion
परमार वंश का शासनकाल मध्यकालीन भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है। लगभग छह शताब्दी तक राज्य करने वाले इस वंश ने कला, साहित्य, युद्ध कौशल और स्थापत्य में उल्लेखनीय योगदान दिया। खजुराहो और भोजशाला मंदिर उनकी कलात्मक प्रतिभा के प्रमाण हैं, जबकि भोज जैसे शासक विद्वत्ता और प्रशासनिक कुशलता के प्रतीक हैं। भले ही उनका शासन समाप्त हो गया हो, परमार वंश की विरासत आज भी मध्य भारत की संस्कृति और इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ती है।