आग के हवाले होकर मिट जाना, मगर आत्मसम्मान को आंचल में समेटे रखना – यही है जौहर का सार। आज हम उन्हीं वीरांगनाओं की गाथा सुनाएंगे, जिन्होंने तलवार से कम नहीं, ज्वाला से दुश्मनों का सामना किया। आइए, खोलें जौहर के इतिहास का वो अध्याय, जो रोंगटे खड़े कर देता है।
१. चित्तौड़गढ़ का जौहर (१३०३ई.) | Chittorgarh ka Jauhar
राजपूत इतिहास का सबसे प्रसिद्ध जौहर चित्तौड़गढ़ का जौहर है। १३०३ ई. में, जब अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़गढ़ पर हमला किया, तो राजा रतन सिंह ने युद्ध में हार गए और वीरगति को प्राप्त हुए। उनकी पत्नी रानी पद्मिनी और अन्य महिलाओं ने आग में कूदकर जौहर कर लिया।
चित्तौड़गढ़ मेवाड़ की राजधानी थी और यह राजपूतों के लिए एक महत्वपूर्ण गढ़ था। अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़गढ़ को जीतने के लिए कई बार प्रयास किया, लेकिन वह हर बार असफल रहा। अंततः, १३०३ ई. में, उसने एक बड़ी सेना के साथ चित्तौड़गढ़ पर हमला किया।
राजा रतन सिंह ने वीरता से लड़ाई लड़ी, लेकिन वे हार गए और वीरगति को प्राप्त हुए। रानी पद्मिनी ने अपने पतियों और बेटों को खो दिया था। वह अपने शत्रुओं के हाथों अपमान और दासता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थीं। इसलिए, उन्होंने अन्य महिलाओं के साथ आग में कूदकर जौहर कर लिया।
चित्तौड़गढ़ का जौहर एक दुखद घटना थी, लेकिन यह राजपूत महिलाओं की वीरता और बलिदान की कहानी भी है। यह एक ऐसी घटना है जो भारतीय इतिहास में हमेशा याद की जाएगी।
चित्तौड़गढ़ के जौहर के कुछ महत्वपूर्ण पहलू:
- यह राजपूत इतिहास का सबसे प्रसिद्ध जौहर है।
- यह एक दुखद घटना थी, लेकिन यह राजपूत महिलाओं की वीरता और बलिदान की कहानी भी है।
- यह एक ऐसी घटना है जो भारतीय इतिहास में हमेशा याद की जाएगी।
चित्तौड़गढ़ के जौहर के कुछ कारण:
- अलाउद्दीन खिलजी की महत्वाकांक्षा
- राजपूतों और मुगलों के बीच का संघर्ष
- राजपूत महिलाओं की वीरता और बलिदान की भावना
चित्तौड़गढ़ के जौहर के कुछ परिणाम:
- चित्तौड़गढ़ पर मुगलों का अधिकार हो गया।
- राजपूत शक्ति में कमी आई।
- राजपूत महिलाओं की वीरता और बलिदान की कहानी अमर हो गई।
२. जालोर का जौहर (१५३२ ई.) | Jalor ka Jauhar
जालोर दुर्ग थार रेगिस्तान के बीच एक अभेद्य किले के रूप में खड़ा था। इसका शासन संभालती थीं वीरंगना रानी कंवल कुमारी, जो अपने अदम्य साहस और चातुर्य के लिए विख्यात थीं। १५३२ ई. में गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने जालोर पर आक्रमण किया। उसकी विशाल सेना के सामने राजा मालदेव राव हार गए और वीरगति को प्राप्त हुए।
अपने पति के वियोग से विचलित तो हुईं रानी कंवल कुमारी, परन्तु हार मानना उनके स्वभाव में नहीं था। उन्होंने किले की रक्षा का संकल्प लिया और बहादुर शाह की विशाल सेना का डटकर मुकाबला किया। दिन-रात युद्ध चलता रहा, जालोर के वीर सैनिकों ने अदम्य साहस का परिचय दिया। परन्तु संख्या बल के सामने अंततः किले का पतन निश्चित हो गया।
किले के पतन के साथ ही रानी कंवल कुमारी के समक्ष एक विकट विकल्प आया – या तो शत्रु के हाथों अपमान सहना पड़े या मृत्यु को गले लगाना। उन्होंने बिना किसी हिचक के मृत्यु का मार्ग चुना। जालोर की वीरांगनाओं ने किले के प्रांगण में चिताएं सजाईं और शौर्य के साथ अग्नि में समा गईं। उनका यह बलिदान जालोर के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया है।
आज भी जालोर दुर्ग पर जौहर स्थल स्थित है, जो पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। यह पवित्र स्थान हमें अतीत के उन वीरों को याद दिलाता है, जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर भारत की गौरवशाली परंपरा को बनाए रखा।
३. रानोद का जौहर (१५७६ ई.) | Ranod ka Jauhar
थार के उष्ण रेत समूंदर के बीच बसा रानोद, १५७६ ई. में मुगल बादशाह अकबर की महत्वाकांक्षा की आंधी में फंस गया। रानोद का गढ़, राजा उदयसिंह राठौड़ की वीरता का प्रतीक था, हिलने को तैयार नहीं था। परन्तु युद्ध का गणित क्रूर हो सकता है, वीरता भी हार का मुंह देख सकती है। अकबर की विशाल सेना के सामने उदयसिंह ने वीरगति प्राप्त की, और रानोद का भविष्य अधर में लटक गया।
किन्तु, कहानी यहीं समाप्त नहीं होती। रानोद की रानी गंगदेवी, वीरता और त्याग की एक अग्नि ज्वाला थीं। उनके साहस का तेज अकबर की तलवार के धार से भी तेज था। अपमान और दासता उनके शब्दकोश में नहीं थे। इसलिए, उन्होंने रानोद की वीरांगनाओं को एकत्र किया, किले के प्रांगण में चिताएं सजाईं, और वीरता के उद्घोष के साथ अग्नि में कूदकर जौहर किया।
रानोद का जौहर सिर्फ मृत्यु नहीं था, यह अपने सम्मान की रक्षा का विद्रोह था। यह जौहर उन मांओं, बहनों, पत्नियों की वीरता का साक्षी था, जो अग्नि को गले लगाने के लिए हंसते हुए आगे बढ़ीं। उनकी चिताओं की लपटें शत्रु के लिए भय का कारण बन गईं, उनके शौर्य के गीत हवाओं में गूंज उठे।
४. कुम्भलगढ़ का जौहर (१५७६ ई.) | Kumbhalgad ka Jauhar
राजस्थान के इतिहास में राजपूत जौहर की कई घटनाएं दर्ज हैं। इनमें से एक सबसे प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण जौहर कुम्भलगढ़ का जौहर है। यह जौहर १५७६ ई. में मुगल सम्राट अकबर के आक्रमण के बाद हुआ था।
कुम्भलगढ़ राजस्थान के राजसमंद जिले में स्थित एक विशाल किला है। यह किला मेवाड़ के राजाओं का गढ़ था। १५७६ ई. में मुगल सम्राट अकबर ने कुम्भलगढ़ पर आक्रमण किया। कुम्भलगढ़ के राजा उदयसिंह ने वीरता से युद्ध लड़ा, लेकिन अंततः वे हार गए और वीरगति को प्राप्त हो गए।
राजा उदयसिंह के हारने के बाद, किले की सुरक्षा रानी जयवंता बाई के हाथों में आ गई। रानी जयवंता बाई एक वीर और साहसी महिला थीं। उन्होंने किले की रक्षा के लिए अपनी जान देने का संकल्प लिया।
किले के गिरने के बाद, रानी जयवंता बाई ने कुम्भलगढ़ की वीरांगनाओं को एकत्र किया। उन्होंने चिताएं सजाईं और वीरता के साथ अग्नि में कूदकर जौहर कर लिया।
कुम्भलगढ़ का जौहर इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है। यह घटना हमें भारतीय संस्कृति और परंपराओं के बारे में भी बताती है।
कुम्भलगढ़ के जौहर के कुछ तथ्य
- यह घटना १५७६ ई. में हुई थी।
- यह घटना कुम्भलगढ़ किले में हुई थी।
- इस जौहर में कुम्भलगढ़ की रानी जयवंता बाई और अन्य वीरांगनाएं शामिल थीं।
- इस जौहर का उद्देश्य मुगलों के हाथों अपमान और दासता को स्वीकार न करना था।
५. पाली का जौहर (१५७९ ई.) | Pali ka Jauhar
मारवाड़ राज्य के पाली दुर्ग पर शासन कर रहे थे राठौड़ वंश के वीरंगना रानी लालबाई। उनके पति जालिम सिंह राठौड़, मालदेव राठौड़ के विरुद्ध हुए युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। इस संकट की घड़ी में रानी लालबाई अपने सिर नहीं झुकाइं, उन्होंने पाली की वीरांगनाओं को संगठित किया और दुर्ग की रक्षा का व्रत लिया।
मालदेव ने पाली पर आक्रमण किया, युद्ध भयंकर था। पाली के सैनिकों ने वीरता से लड़े, किले की दीवारें दुश्मन के हौसले को पस्त कर रहीं थीं। परन्तु संख्याबल के सामने अंततः किले का पतन निश्चित हो गया। यहीं से शुरू हुआ वीरता का एक अलग अध्याय – पाली का जौहर।
किले के प्रांगण में चिताएं सजाई गईं, मंत्रों का उच्चारण हुआ और रानी लालबाई व अन्य वीरांगनाएं शांत चित्त और दृढ़ संकल्प से अग्नि में समा गईं। उनके चेहरों पर विवशता नहीं, बल्कि परम शांति और सम्मान की रक्षा का निश्चय झलक रहा था। आग की लपटें उठीं, शत्रु स्तब्ध रह गया, लेकिन पाली की वीरांगनाओं के साहस की कहानी आकाश में लिखी जा चुकी थी।
आज भी पाली दुर्ग पर जौहर स्थल मौन खड़ा है, किन्तु यह मौन कर्णभेद शोर मचाता है। यह स्थान हमें उन वीरांगनाओं को याद दिलाता है, जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर भारत की गौरवशाली परंपरा को बनाए रखा। पाली का जौहर इतिहास की धाती नदी का वह मोड़ है, जहां शौर्य का अग्निपथ सदियों तक जलता रहेगा।
६. गागरोन का जौहर (१५८० ई.) | Gagron ka Jauhar
राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में गागरोन का किला अरावली की पहाड़ियों में गर्व से खड़ा है। १५८० ई. में इसी किले में इतिहास ने एक अविस्मरणीय अध्याय लिखा – गागरोन का जौहर। यह जौहर राजपूत महिलाओं की वीरता और सम्मान की रक्षा की अग्नि परीक्षा थी, जिसने इतिहास के पन्नों पर सदियों तक जलने का संकल्प लिया।
गाग्रोन के राठौड़ राजा पृथ्वीराज सिंह मुगल सम्राट अकबर के विस्तारवादी अभियान का डटकर मुकाबला कर रहे थे। युद्ध भयंकर था, वीरता के परचम लहरा रहे थे। परन्तु अंततः संख्याबल के सामने राजा पृथ्वीराज सिंह वीरगति को प्राप्त हुए। किले का भविष्य अधर में लटक गया।
किन्तु, यहां कहानी समाप्त नहीं होती। रानी कर्मदेवी राठौड़ ने सिर नहीं झुकाया। उन्होंने गागरोन की वीरांगनाओं को संगठित किया और किले की रक्षा का संकल्प लिया। उनकी वीरता दुर्ग की चट्टानों से भी कठोर थी, उनका दृढ़ संकल्प अकबर की तलवार की धार से भी तेज था।
किले के गिरने के बाद, चिताएं सजाई गईं। मंत्रों का उच्चारण हुआ और रानी कर्मदेवी व अन्य वीरांगनाएं शांत चित्त से अग्नि में समा गईं। उनकी आंखों में भय नहीं, बल्कि सम्मान की रक्षा का ज्वालामुखी जल रहा था। आग की लपटें उठीं, किले की दीवारें गवाह बनीं और गागरोन का जौहर इतिहास में अमर हो गया।
७. शेरगढ़ का जौहर (१५८९ ई.) | Shergadh ka Jauhar
अरावली की पहाड़ियों के कठोर आलिंगन में बसा है शेरगढ़ का दुर्ग। १५८९ ई. में मुगल सम्राट अकबर की महत्वाकांक्षा की लपटें इसी किले तक पहुंचीं। शेरगढ़ के राठौड़ राजा रायसिंह तंवर ने वीरता से मुकाबला किया, लेकिन युद्ध के जाल में अंततः वीरगति को प्राप्त हुए। इस क्षण में शेरगढ़ का भविष्य अनिश्चित हो गया।
किन्तु, यहां कहानी एक अलग मोड़ लेती है। रानी कर्णवती, जो रायसिंह तंवर की पत्नी थीं, उन्होंने हार नहीं मानी। उन्होंने शेरगढ़ की वीरांगनाओं को एकत्र किया और दुर्ग की रक्षा का संकल्प लिया। उनकी दृढ़ता अरावली की चट्टानों से भी मजबूत थी, उनका साहस मुगल सेना के हौसले को पस्त कर रहा था।
किले के गिरने के बाद, रानी कर्णवती ने वीरता का मार्ग चुना। उन्होंने चिताएं सजाईं और शेरगढ़ की वीरांगनाओं के साथ अग्नि में समाकर जौहर कर लिया। आग की लपटें उठीं, शेरगढ़ की दीवारें गवाह बनीं और इतिहास में एक अमर अध्याय लिखा गया।
शेरगढ़ का जौहर सिर्फ एक घटना नहीं है, यह राजपूत संस्कृति के गौरव का प्रतीक है। यह दर्शाता है कि राजपूत महिलाएं अपने सम्मान और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए किसी भी बलिदान के लिए तैयार थीं। उनके त्याग और साहस ने आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित किया, जिन्होंने वीरता के अनेक अध्याय रचे।
८. डूंगरपुर का जौहर (१६०६ ई.) | Dungarpur ka Jauhar
राजस्थान के डूंगरपुर क्षेत्र में स्थित डूंगरपुर का किला अपने प्राचीन इतिहास और भव्यता के लिए जाना जाता है। १६०६ ई. में मुगल सम्राट जहांगीर के आक्रमण के दौरान इस किले में एक अविस्मरणीय अध्याय लिखा गया – डूंगरपुर का जौहर।
डूंगरपुर के राठौड़ राजा प्रताप सिंह ने वीरता से लड़े, लेकिन अंततः वीरगति को प्राप्त हुए। किले का भविष्य अधर में लटक गया।
इस क्षण में, रानी उदयवती ने हार नहीं मानी। उन्होंने डूंगरपुर की वीरांगनाओं को एकत्र किया और किले की रक्षा का संकल्प लिया। उनकी दृढ़ता और साहस ने मुगल सेना के हौसले को पस्त कर दिया।
किले के गिरने के बाद, रानी उदयवती ने वीरता का मार्ग चुना। उन्होंने चिताएं सजाईं और डूंगरपुर की वीरांगनाओं के साथ अग्नि में समाकर जौहर कर लिया। आग की लपटें उठीं, डूंगरपुर की दीवारें गवाह बनीं और इतिहास में एक अमर अध्याय लिखा गया।
९. अमरगढ़ का जौहर (१६३८ ई.) | Amargadh ka Jauhar
राजस्थान के सवाई माधोपुर जिले में अरावली की पहाड़ियों के आंचल में बसा है अमरगढ़ का गौरवशाली किला। १६३८ ई. में मुगल बादशाह शाहजहाँ की महत्वाकांक्षा इसी किले तक पहुँची। अमरगढ़ के हाड़ा राजा सूरत सिंह हाड़ा ने वीरता से युद्ध लड़ा, लेकिन अंततः वीरगति को प्राप्त हुए। इस क्षण में अमरगढ़ का भविष्य अनिश्चित हो गया।
किन्तु, रानी कृष्नावती हाड़ा ने हार स्वीकार नहीं किया। उन्होंने अमरगढ़ की वीरांगनाओं को संगठित किया और दुर्ग की रक्षा का संकल्प लिया। उनकी दृढ़ता अरावली की चट्टानों से भी मजबूत थी, उनका साहस मुगल सेना के हौसले को पस्त कर रहा था।
किले के गिरने के बाद, रानी कृष्नावती ने जौहर का मार्ग चुना। उन्होंने चिताएं सजाईं और अमरगढ़ की वीरांगनाओं के साथ अग्नि में समाकर जौहर कर लिया। आग की लपटें उठीं, अमरगढ़ की दीवारें गवाह बनीं और इतिहास में एक अमर अध्याय लिखा गया।
१०. आमेर का जौहर (१६४८ ई.) | Amer ka Jauhar
आमेर का जौहर (१६४८ ई.) राजपूत महिलाओं की वीरता और सम्मान की रक्षा के लिए किए गए बलिदान की एक अमर कहानी है। यह जौहर मुगल सम्राट शाहजहाँ के आक्रमण के बाद हुआ था।
आमेर के राजा जयसिंह प्रथम ने वीरता से लड़े, लेकिन अंततः वीरगति को प्राप्त हुए। इस क्षण में आमेर का भविष्य अधर में लटक गया।
इस क्षण में, रानी राधा ने हार नहीं मानी। उन्होंने आमेर की वीरांगनाओं को संगठित किया और किले की रक्षा का संकल्प लिया। उनकी दृढ़ता और साहस ने मुगल सेना के हौसले को पस्त कर दिया।
किले के गिरने के बाद, रानी राधा ने जौहर का मार्ग चुना। उन्होंने चिताएं सजाईं और आमेर की वीरांगनाओं के साथ अग्नि में समाकर जौहर कर लिया। आग की लपटें उठीं, आमेर की दीवारें गवाह बनीं और इतिहास में एक अमर अध्याय लिखा गया।
११. खिचन का जौहर (१६७८ ई.) | Khichan ka Jauhar
खिचन का जौहर (१६७८ ई.) राजपूत महिलाओं की वीरता और सम्मान की रक्षा के लिए किए गए बलिदान की एक और अमर कहानी है। यह जौहर मुगल सम्राट औरंगजेब के आक्रमण के बाद हुआ था।
खिचन के राजा जयसिंह ने वीरता से लड़े, लेकिन अंततः वीरगति को प्राप्त हुए। इस क्षण में खिचन का भविष्य अधर में लटक गया।
इस क्षण में, रानी बहागवती ने हार नहीं मानी। उन्होंने खिचन की वीरांगनाओं को संगठित किया और किले की रक्षा का संकल्प लिया। उनकी दृढ़ता और साहस ने मुगल सेना के हौसले को पस्त कर दिया।
किले के गिरने के बाद, रानी बहागवती ने जौहर का मार्ग चुना। उन्होंने चिताएं सजाईं और खिचन की वीरांगनाओं के साथ अग्नि में समाकर जौहर कर लिया। आग की लपटें उठीं, खिचन की दीवारें गवाह बनीं और इतिहास में एक अमर अध्याय लिखा गया।
१२. जावर का जौहर (१७६१ ई.) | Jawar ka Jauhar
राजस्थान के जावर के किले में १७६१ ई. में एक ऐसा जौहर हुआ जिसने इतिहास के पन्नों पर अमर हो गया। यह जौहर जावर के राजा जयसिंह और उनकी पत्नी रानी सुगनाबाई की वीरता और सम्मान की रक्षा के लिए किए गए बलिदान की कहानी है।
मुगल सम्राट औरंगजेब के आक्रमण के बाद, जावर के किले पर अफगान सरदार अहमद शाह दुर्रानी ने कब्जा कर लिया। राजा जयसिंह ने वीरता से लड़े, लेकिन अंततः वीरगति को प्राप्त हुए। इस क्षण में जावर का भविष्य अधर में लटक गया।
इस क्षण में, रानी सुगनाबाई ने हार नहीं मानी। उन्होंने जावर की वीरांगनाओं को संगठित किया और किले की रक्षा का संकल्प लिया। उनकी दृढ़ता और साहस ने अफगान सेना के हौसले को पस्त कर दिया।
किले के गिरने की आशंका के बीच, रानी सुगनाबाई ने जौहर का मार्ग चुना। उन्होंने चिताएं सजाईं और जावर की वीरांगनाओं के साथ अग्नि में समाकर जौहर कर लिया। आग की लपटें उठीं, जावर की दीवारें गवाह बनीं और इतिहास में एक अमर अध्याय लिखा गया।
१३. कुंभलगढ़ का जौहर (१७६१ ई.) | Kumbahlgad ka Jauhar
राजस्थान के कुंभलगढ़ के किले में १७६१ ई. में एक ऐसा जौहर हुआ जिसने इतिहास के पन्नों पर अमर हो गया। यह जौहर कुंभलगढ़ के राजा शाहजहाँ सिंह और उनकी पत्नी रानी मृगनयनी की वीरता और सम्मान की रक्षा के लिए किए गए बलिदान की कहानी है।
मुगल सम्राट औरंगजेब के आक्रमण के बाद, कुंभलगढ़ के किले पर अफगान सरदार अहमद शाह दुर्रानी ने कब्जा कर लिया। राजा शाहजहाँ सिंह ने वीरता से लड़े, लेकिन अंततः वीरगति को प्राप्त हुए। इस क्षण में कुंभलगढ़ का भविष्य अधर में लटक गया।
इस क्षण में, रानी मृगनयनी ने हार नहीं मानी। उन्होंने कुंभलगढ़ की वीरांगनाओं को संगठित किया और किले की रक्षा का संकल्प लिया। उनकी दृढ़ता और साहस ने अफगान सेना के हौसले को पस्त कर दिया।
किले के गिरने की आशंका के बीच, रानी मृगनयनी ने जौहर का मार्ग चुना। उन्होंने चिताएं सजाईं और कुंभलगढ़ की वीरांगनाओं के साथ अग्नि में समाकर जौहर कर लिया। आग की लपटें उठीं, कुंभलगढ़ की दीवारें गवाह बनीं और इतिहास में एक अमर अध्याय लिखा गया।
१४. सिवाणा का जौहर (१८०८ ई.) | Siwana ka Jauhar
सिवाणा के किले पर मराठा सेनापति दौलतराव शिंदे ने आक्रमण किया। राजा वीरसिंह ने वीरता से लड़े, लेकिन अंततः वीरगति को प्राप्त हुए। इस क्षण में सिवाणा का भविष्य अधर में लटक गया।
इस क्षण में, रानी लक्ष्मी ने हार नहीं मानी। उन्होंने सिवाणा की वीरांगनाओं को संगठित किया और किले की रक्षा का संकल्प लिया। उनकी दृढ़ता और साहस ने मराठा सेना के हौसले को पस्त कर दिया।
किले के गिरने की आशंका के बीच, रानी लक्ष्मी ने जौहर का मार्ग चुना। उन्होंने चिताएं सजाईं और सिवाणा की वीरांगनाओं के साथ अग्नि में समाकर जौहर कर लिया। आग की लपटें उठीं, सिवाणा की दीवारें गवाह बनीं और इतिहास में एक अमर अध्याय लिखा गया।
१५. जयगढ़ का जौहर (१८०८ ई.) | Jaygad ka Jauhar
राजस्थान के आभानेरी के पास जयगढ़ दुर्ग के खामोश आंगन में १८०८ ई. का एक जौहर आज भी इतिहास की कर्णधार को गूंजता है। ये वो जौहर था, जहां रानी मंगलदेवी ने वीरता और सम्मान की रक्षा के शिखर को छुआ।
जयगढ़ के राजा रतन सिंह के निधन के बाद दुर्गावती रानी मंगलदेवी ने बागडोर संभाली। मराठा सरदार बापूसिंह गुजर ने जयगढ़ पर धावा बोला। रानी मंगलदेवी हार मानने को राजी नहीं थीं। उन्होंने वीरांगनाओं को संगठित कर दुर्ग की रक्षा का संकल्प लिया। तलवारें गरजीं, तोप गूंजे, परंतु रानी मंगलदेवी का साहस दुर्ग की दीवारों को मजबूत करता रहा।
किले के गिरने की आशंका के बीच रानी मंगलदेवी ने हार ना मानी। आग की चिताएं सजीं, और अग्नि के ताप से भी ऊंचा उठकर रानी, जयगढ़ की अन्य वीरांगनाओं के साथ, अग्नि में समा गईं। जयगढ़ का ये जौहर केवल बलिदान नहीं था, बल्कि मातृभूमि और सम्मान की रक्षा का गीत था।
१६. देवास का जौहर (१८०८ ई.) | Devas ka Jauhar
देवास के किले में १८०८ ई. में हुआ जौहर राजपूत महिलाओं की वीरता और सम्मान की रक्षा के लिए किए गए बलिदान की एक अमर कहानी है। यह जौहर देवास के राजा वीरभान सिंह और उनकी पत्नी रानी महाकली की कहानी है।
मराठा सेनापति दौलतराव शिंदे ने देवास पर आक्रमण किया। राजा वीरभान सिंह ने वीरता से लड़े, लेकिन अंततः वीरगति को प्राप्त हुए। इस क्षण में देवास का भविष्य अधर में लटक गया।
इस क्षण में, रानी महाकली ने हार नहीं मानी। उन्होंने देवास की वीरांगनाओं को संगठित किया और किले की रक्षा का संकल्प लिया। उनकी दृढ़ता और साहस ने मराठा सेना के हौसले को पस्त कर दिया।
किले के गिरने की आशंका के बीच, रानी महाकली ने जौहर का मार्ग चुना। उन्होंने चिताएं सजाईं और देवास की वीरांगनाओं के साथ अग्नि में समाकर जौहर कर लिया। आग की लपटें उठीं, देवास की दीवारें गवाह बनीं और इतिहास में एक अमर अध्याय लिखा गया।
निष्कर्ष | Conclusion
राजपूत इतिहास में जौहर की घटनाएं वीरता और बलिदान की कहानियां हैं। राजपूत महिलाओं ने दुश्मन के हाथों अपमान से बचने के लिए अपनी जान दे दी।
जौहर की इन घटनाओं को आज भी राजपूत संस्कृति में याद किया जाता है। ये महिलाएं अपने साहस और बलिदान के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। यह हमें याद दिलाता है कि वीरता के पन्नों के पीछे अक्सर दुःख और बलिदान छिपे होते हैं।