तुंग राजपूतों का इतिहास, गोत्र और कुलदेवी | Tung Rajput History in Hindi

युद्ध कौशल और शक्तिशाली साम्राज्य के लिए विख्यात, तुंग राजपूत वंश (Tung Rajput) भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है। आइए, जानते है तुंग राजपूतों का इतिहास, तुंग वंश का गोत्र, तुंग वंश की कुलदेवी की विस्तृत जानकारी।

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तुंग राजपूत का परिचय | तुंग वंश का परिचय | Introduction of Tung Rajput Vansh

राजपूत वंशों के गौरवशाली इतिहास में तुंग वंश का नाम स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। यह वंश १२ वीं से १६ वीं शताब्दी के मध्य राजस्थान के विशाल भूभाग पर शासन करता था। दिल्ली सल्तनत के प्रभाव को कम करते हुए इन्होंने अजमेर को अपनी राजधानी बनाया। माना जाता है कि इस वंश की स्थापना राजा धवल देव ने ११९६ ईस्वी में की थी।

तुंग वंश के शासक कला, स्थापत्य और साहित्य के क्षेत्रों में अपने प्रोत्साहन के लिए भी विख्यात थे। वीरता और युद्ध कौशल में निपुण ये शासक युद्धक्षेत्र में शत्रुओं के लिए भय का पर्याय थे। इस वंश के शासनकाल में निर्मित चित्तौड़गढ़ और कुंभलगढ़ जैसे दुर्ग आज भी भारतीय वास्तुकला का शानदार उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

आगामी लेख में हम इस वंश के प्रमुख शासकों, उनकी वीरता के किस्सों, कला और स्थापत्य में उनके योगदान और मुगल साम्राज्य के उदय के साथ इस वंश के अंत तक के इतिहास पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

तुंग वंश की उत्पत्ति | तुंग वंश के संस्थापक | तुंग राजपूत की उत्पत्ति | Tung Vansh ke Sansthapak | Tung Vansh ki Utpatti | Tung Rajput ki Utpatti

तुंग वंश की उत्पत्ति को जानना इतिहास के धुंधलके में छिपे सिक्के को खोजना है। इतिहासकारों के बीच इस वंश के संस्थापक और शुरुआती शासनकाल को लेकर मतभेद पाए जाते हैं। कुछ स्रोतों के अनुसार, इस वंश की स्थापना राजा धवल देव ने ११९६ ईस्वी में की थी। उन्होंने दिल्ली सल्तनत के कमजोर पड़ते प्रभाव का लाभ उठाते हुए अजमेर पर विजय प्राप्त कर उसे अपनी राजधानी बनाया। वहीं, कुछ अन्य विद्वानों का मानना है कि तुंग वंश का उदय इससे पहले ११ वीं शताब्दी में ही हो चुका था।

इन मतभेदों का एक कारण प्राचीन ग्रंथों में तुंग वंश के उल्लेख का अभाव माना जाता है। ज्यादातर जानकारी बाद के ग्रंथों और लोक कथाओं से प्राप्त होती है। ‘वीर विनोद’ नामक ग्रंथ में धवल देव को इस वंश का संस्थापक बताया गया है। वहीं, ‘नसीरउद्दीन मिनहाज’ द्वारा किताब में भी तुंग वंश के शासकों का उल्लेख मिलता है।

इतिहासकारों का दूसरा मतभेद तुंग वंश के पूर्वजों को लेकर है। कुछ विद्वानों का मानना है कि उनकी उत्पत्ति गुर्जर-प्रतिहार वंश से हुई है। वहीं, कुछ अन्य इन्हें मीणा जनजाति से जोड़ते हैं। हालाँकि, अभी तक कोई ठोस सबूत इन दावों का समर्थन नहीं करते।

इन चुनौतियों के बावजूद, इतिहासकारों का एक बड़ा वर्ग राजा धवल देव को ही तुंग वंश का संस्थापक मानता है। उनके दिल्ली सल्तनत के खिलाफ विद्रोह और अजमेर पर विजय को ही इस वंश की शुरुआत के रूप में स्वीकार किया जाता है। आगामी लेखों में हम इस वंश के प्रमुख शासकों और उनके कारनामों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

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१२ वीं से १६ वीं शताब्दी के बीच राजस्थान के इतिहास में तुंग वंश का नाम शौर्य गाथाओं से अ inseparable है। माना जाता है कि राजा धवल देव ने ११९६ ईस्वी में दिल्ली सल्तनत के कमजोर पड़ते प्रभाव का फायदा उठाकर अजमेर पर विजय प्राप्त कर इस वंश की नींव रखी थी। उन्होंने इसे अपनी राजधानी बनाकर आसपास के क्षेत्रों को अपने अधीन किया।

आरंभिक शासक राजा धवल देव और राणा अरजुन देव ने दिल्ली सल्तनत के साथ संघर्ष जारी रखा। राणा राम सिंह के शासनकाल में तुंग वंश की सैन्य शक्ति चरम पर पहुंची। उन्होंने मालवा के सुल्तान को परास्त कर राज्य विस्तार किया। राणा विजयपाल और राणा कर्ण सिंह ने भी इसी परम्परा को आगे बढ़ाया।

तुंग वंश का स्वर्णिम युग राणा कुंभ (१४३३ -१४६८) के शासनकाल में माना जाता है। राणा कुंभ एक महान योद्धा, कुशल प्रशासक और कला के संरक्षक थे। उन्होंने मेवाड़ राज्य की सीमाओं का विस्तार किया और चित्तौड़गढ़ किले का निर्माण करवाया। यह किला अपनी अभेद्यता के लिए प्रसिद्ध है। राणा कुंभ ने कला और साहित्य के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय योगदान दिया। उनके दरबार में कई विद्वान और कलाकार पनपे।

राणा कुंभ के बाद राणा जयसिंह और राणा सांगा जैसे शक्तिशाली शासक हुए। राणा सांगा ने १५२७ में खानवा की लड़ाई में मुगल बादशाह बाबर को कड़ी चुनौती दी, हालांकि अंततः उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा।

१६ वीं शताब्दी के मध्य में मुगल साम्राज्य के उदय के साथ तुंग वंश के लिए चुनौतियां बढ़ गईं। राणा विक्रमादित्य (१५२७-१५६२) तक मुगलों का विरोध जारी रहा। १५६२ ईस्वी में मुगल सम्राट अकबर ने चित्तौड़गढ़ पर विजय प्राप्त कर तुंग वंश के शासन को समाप्त कर दिया।

हालांकि, तुंग वंश के शासनकाल ने राजस्थान के इतिहास में गौरवशाली अध्याय लिखा। इन शासकों ने वीरतापूर्वक दिल्ली सल्तनत और बाद में मुगलों का सामना किया। उन्होंने कला, स्थापत्य और साहित्य के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। चित्तौड़गढ़ और कुंभलगढ़ जैसे दुर्ग आज भी उनके शौर्य और स्थापत्य कला का प्रमाण देते हैं। तुंग वंश का अंत भले ही हो गया हो, लेकिन उनका इतिहास राजपूत वंश की वीरता और राष्ट्रभक्ति का प्रतीक बना हुआ है।

तुंग वंश के राजा और उनकी उपलब्धियां | तुंग वंश के प्रमुख शासक और उनकी उपलब्धियां | Kings of Tung Vansh | Tung Rajput Raja | Tung vansh ke Raja

मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद, भारत में कई छोटे राज्यों का उदय हुआ। इनमें से एक महत्वपूर्ण राज्य था शुंग वंश। इस वंश के शासकों ने लगभग एक शताब्दी तक (१८५ ईसापूर्व – ७३ ईसा पूर्व) शासन किया और इस दौरान कला, साहित्य, धर्म और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया।

शक्तिशाली शासक और उनकी उपलब्धियां

१. पुष्यमित्र शुंग (१८५-१४९ ईसा पूर्व): शुंग वंश के संस्थापक, पुष्यमित्र शुंग ने मौर्य सम्राट बृहद्रथ को हटाकर सत्ता हासिल की। उन्होंने यवनों के आक्रमणों को सफलतापूर्वक रोका और वैदिक धर्म के पुनरुत्थान का प्रयास किया। उनके शासनकाल में अश्वमेध यज्ञ का आयोजन भी किया गया।

२. अग्निमित्र (१४९-१३१ ईसा पूर्व): पुष्यमित्र शुंग के पुत्र अग्निमित्र ने विदर्भ के शासक यज्ञसेन को हराया। उन्होंने कला और साहित्य के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय योगदान दिया, जिसका प्रमाण मथुरा में यमुना नदी के तट पर बनाया गया ‘गरुड़ स्तंभ’ है।

३. वसुमित्र (१३१-१२४ ईसा पूर्व): वसुमित्र ने ‘भागवत धर्म’ का समर्थन किया और महान विद्वानों को संरक्षण दिया। उनके शासनकाल में ‘पातंजलि’ जैसे विद्वान फले-फूले और महाभारत का संशोधन भी करवाया गया।

४. भागभद्र (१२४-१०८ ईसा पूर्व) और ५. देवभूति (१०८-७७ ईसा पूर्व): इन दोनों शासकों ने भी कला, स्थापत्य और धर्म के प्रचार-प्रसार में योगदान दिया। देवभूति के शासनकाल में ही शुंग वंश का अंत हुआ और ‘काण्व’ नामक ब्राह्मण वंश सत्ता में आया।

शुंग वंश का स्थायी प्रभाव

शुंग वंश के शासनकाल में यद्यपि साम्राज्य विस्तार नहीं हुआ, फिर भी उन्होंने एक मजबूत और स्थिर साम्राज्य स्थापित किया। उन्होंने यवनों के आक्रमणों को रोका और आंतरिक विद्रोहों को नियंत्रित किया। साथ ही, कला, साहित्य और धर्म के क्षेत्र में उनकी उपलब्धियां भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण मानी जाती हैं।

तुंग राजपूत वंशावली | तुंग वंश की वंशावली | Tung vansh ki vanshavali | Tung Rajput vanshavali

भारतीय इतिहास में राजपूत राजवंशों का एक गौरवशाली स्थान रहा है। इनमें से एक महत्वपूर्ण वंश है तुंग राजपूत वंश, जिसे तंवर या तोमर वंश के नाम से भी जाना जाता है।

पौराणिक कथाओं और इतिहासकारों के अनुसार, तुंग राजपूत वंश की उत्पत्ति महाभारत के पाण्डव वंश से जुड़ी है। राजा तुंग, पाण्डव वंश के वंशज माने जाते हैं, और उन्हीं के नाम से इस वंश की शाखा को तुंग, तंवर या तोमर कहा गया।

प्रमुख तुंग राजपूत शासक:

१. अनंगपाल तोमर (लगभग ७ वीं शताब्दी): माना जाता है कि इन्होंने ही दिल्ली की नींव रखी थी।

२. जयपाल तोमर (७७९-८१० ईस्वी): इनके शासनकाल में तुंग वंश का काफी विस्तार हुआ।

३. त्रिलोचनपाल तोमर (८१०-८२० ईस्वी): जयपाल के पुत्र त्रिलोचनपाल ने भी सफलतापूर्वक शासन किया।

४. माहिपाल (लगभग १० वीं शताब्दी): इन्होंने तुंग वंश की सत्ता को मजबूत किया और प्रतिष्ठा बढ़ाई।

५. अनंगपाल द्वितीय (लगभग ११ वीं शताब्दी): इनके शासनकाल में भी तुंग वंश का प्रभाव बना रहा।

६. विजयपाल (लगभग १२ वीं शताब्दी): विजयपाल के शासनकाल में तुंग वंश को गहड़वाल वंश से संघर्ष का सामना करना पड़ा।

७. अनंगपाल तृतीय (लगभग १२ वीं शताब्दी): गहड़वाल वंश से युद्ध में इनकी पराजय हुई और तुंग वंश का दिल्ली पर शासन कमजोर पड़ गया।

१२ वीं शताब्दी के बाद:

१२ वीं शताब्दी के बाद तुंग वंश का दिल्ली पर सीधा शासन कमजोर हो गया, लेकिन वे अन्य क्षेत्रों में शक्तिशाली बने रहे। हरियाणा, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश जैसे क्षेत्रों में तुंग राजपूतों के कई शासक हुए।

८. दूदा (लगभग १३ वीं शताब्दी): इन्होंने ग्वालियर में शासन किया।

९. कुम्भा (लगभग १४ वीं शताब्दी): ग्वालियर के एक अन्य शक्तिशाली शासक।

१०. हेमू (१५०१-१५५६ ईस्वी): दिल्ली के अंतिम हिंदू शासक, जिन्होंने मुगलों से युद्ध किया।

तुंग राजपूतों की विरासत:

तुंग राजपूतों ने सदियों से भारत की राजनीतिक और सांस्कृतिक परिदृश्य को प्रभावित किया। इन्होंने मंदिरों और किलों का निर्माण करवाया, कला और साहित्य को संरक्षण दिया। वीरता और युद्ध कौशल के लिए भी तुंग राजपूत प्रसिद्ध रहे।

हालांकि दिल्ली पर सीधा शासन कमजोर होने के बाद भी, तुंग राजपूतों ने अन्य क्षेत्रों में अपनी शक्ति बनाए रखी और भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

तुंग राजपूत गोत्र | तुंग वंश का गोत्र | Tung Rajput Gotra | Tung Rajput vansh gotra | Tung vansh gotra

तुंग राजपूत वंश, पारंपरिक रूप से कश्यप गोत्र से संबंधित माने जाते हैं। हिंदू धर्म में, गोत्र वंशावली और वंश परंपरा को दर्शाता है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार, कश्यप ऋषि, ब्रह्मा के पुत्र और दस प्रजापतियों में से एक थे। कई राजपूत वंशों की उत्पत्ति को कश्यप ऋषि से जोड़ा जाता है, जिनमें तुंग राजपूत भी शामिल हैं।

यह उल्लेखनीय है कि इतिहासकारों और विद्वानों के बीच तुंग राजपूतों के गोत्र को लेकर थोड़ा मतभेद है। कुछ स्रोतों में इन्हें सूर्यवंशी (सूर्य के वंशज) के रूप में भी वर्णित किया जाता है। हालांकि, कश्यप गोत्र के साथ जुड़ाव अधिक व्यापक रूप से स्वीकृत माना जाता है।

गोत्र की परंपरा न केवल वंशावली को बनाए रखने में महत्वपूर्ण है, बल्कि विवाह संबंधों को नियंत्रित करने में भी भूमिका निभाती है। आम तौर पर, एक ही गोत्र के अंतर्गत विवाह की अनुमति नहीं होती है।

अंतत:, तुंग राजपूतों का कश्यप गोत्र से जुड़ाव उनकी वंशावली और विरासत को दर्शाता है, जो प्राचीन भारतीय ऋषियों से जुड़ी हुई मानी जाती है।

तुंग वंश की कुलदेवी | तुंग राजपूत की कुलदेवी | Tung Rajput ki Kuldevi | Tung vansh ki kuldevi

प्रत्येक राजपूत वंश की तरह, तुंग वंश की भी एक कुलदेवी मानी जाती है, जिनकी पूजा वंश के कल्याण और विजय के लिए की जाती है। हालांकि, तुंग वंश की कुलदेवी को लेकर इतिहासकारों और विद्वानों के बीच थोड़ा मतभेद पाया जाता है। आइए, इन संभावनाओं पर गौर करें:

  • दुर्गा देवी: दुर्गा देवी शक्ति और रक्षा की देवी हैं। कई राजपूत वंश दुर्गा देवी को अपनी कुलदेवी मानते हैं। यह संभव है कि तुंग वंश भी दुर्गा देवी की पूजा करता हो।
  • अन्नपूर्णा देवी: अन्नपूर्णा देवी को अन्नपूर्णा मातृका के रूप में भी जाना जाता है। ये भोजन और पोषण की देवी हैं। कुछ स्रोतों के अनुसार, तुंग वंश अन्नपूर्णा देवी को कुलदेवी मानता है। यह संभावना इस तथ्य से जुड़ी हो सकती है कि तुंग वंश के शासनकाल में कृषि और समृद्धि को महत्व दिया जाता था।
  • स्थानीय देवियां: यह भी संभव है कि तुंग वंश के विभिन्न शासकों ने अपने-अपने क्षेत्रों में प्रचलित देवियों को कुलदेवी के रूप में स्वीकार किया हो। उदाहरण के लिए, ग्वालियर में शासन करने वाले तुंग राजपूतों ने किसी स्थानीय देवी की पूजा की हो सकती है।

तुंग राजवंश के प्रांत | Tung Vansh ke Prant

क्र.प्रांत के नामप्रांत का प्रकार
श्यामसुंदरपुरजमींदारी

निष्कर्ष  | Conclusion

तुंग वंश, भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है। सदियों तक राजनीतिक रूप से शक्तिशाली रहते हुए, उन्होंने कला, स्थापत्य और साहित्य को भी संरक्षण दिया।

प्रारंभिक शासकों ने यवनों के आक्रमणों को रोका और साम्राज्य का विस्तार किया। हालांकि, बाद के शासनकाल में आंतरिक कलह और बाहरी हमलों का सामना करना पड़ा।

दिल्ली पर सीधा शासन कमजोर होने के बावजूद, तुंग राजपूत अन्य क्षेत्रों में शक्तिशाली बने रहे। उनकी वंशावली कश्यप गोत्र से जुड़ी मानी जाती है और कुलदेवी के रूप में दुर्गा देवी या अन्नपूर्णा देवी की पूजा की संभावना है।

विभिन्न शाखाओं में विभाजित होकर भी, तुंग राजपूतों ने वीरता, सांस्कृतिक परंपराओं और राष्ट्रभक्ति की विरासत को आगे बढ़ाया। भारतीय इतिहास और सामाजिक ताने-बाने में तुंग वंश का योगदान अविस्मरणीय है।

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